CPEC का अफगान विस्तार चीन-पाक-तालिबान तिकड़ी की भारत के खिलाफ नई चाल?
Editor : Anjali Mishra | 23 May, 2025
डिप्लोमेसी बनाम जियो-स्ट्रैटेजी CPEC का नया अध्याय और भारत की चुनौती

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एक बार फिर से भारत की कूटनीति के सामने नया और बड़ा चुनौती मोर्चा खुल गया है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का विस्तार अब सीधे अफगानिस्तान तक पहुंच चुका है, जिससे क्षेत्रीय समीकरण और भी जटिल हो गए हैं। ये तब हुआ है जब भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के ज़रिए पाकिस्तान को कड़ा संदेश दिया है और अफगानिस्तान ने पहलगाम हमले की निंदा कर संबंध सुधारने की ओर कदम बढ़ाया है। क्या यह चीन-पाक-तालिबान की नई तिकड़ी भारत की बढ़ती रणनीतिक पकड़ को कमजोर करने की एक सुनियोजित चाल है?
बीजिंग में हाल ही में एक ऐतिहासिक त्रिपक्षीय बैठक हुई।जिसमें चीनी विदेश मंत्री वांग यी, पाकिस्तानी समकक्ष इशाक डार और अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी शामिल हुए। बैठक का नतीजा था। CPEC को अफगानिस्तान तक विस्तारित करने का निर्णय। यह बैठक खास इसलिए भी मानी जा रही है क्योंकि यह पहलगाम आतंकी हमले और भारत के जवाबी ऑपरेशन सिंदूर के बाद चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान की पहली आधिकारिक वार्ता थी। अब आपको बताते हैं आखिर सीपीईसी क्या है और भारत इसका विरोध क्यों करता है। सीपीईसी, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की सबसे महत्वाकांक्षी और विवादास्पद परियोजना है। इसकी शुरुआत 2015 में हुई थी और अब तक इसमें 62 अरब डॉलर से ज्यादा का निवेश हो चुका है। ये गलियारा पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (PoK) से होकर गुजरता है।यही वजह है कि भारत इसका लगातार विरोध करता आया है। 2013 से भारत का स्पष्ट रुख रहा है।कोई भी परियोजना जो उसकी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को चुनौती देती है, वह अस्वीकार्य है। भारत के विदेश मंत्रालय ने 2022 में स्पष्ट कहा था: CPEC का कोई भी हिस्सा जो भारतीय क्षेत्र (PoK) से होकर गुजरता है, अवैध और अस्वीकार्य है।
पाकिस्तान की CPEC पर निर्भरता क्या है।
पाकिस्तान के लिए CPEC शुरुआत में एक सुनहरी आशा की तरह आया बिजली संकट, बेरोजगारी और बुनियादी ढांचे की कमी के समाधान के रूप में। लेकिन समय के साथ यह परियोजना पाकिस्तान के लिए वित्तीय बोझ बनती गई। अधिकांश निवेश चीनी कंपनियों की इक्विटी होल्डिंग्स के रूप में हुआ और इस्लामाबाद को 80% लागत वहन करनी पड़ी। चीन की सख्त शर्तें, कोयला संयंत्रों से पलटी गई प्रतिबद्धताएं और IMF के सामने पाकिस्तान की झोली फैलाना इन सबने इस परियोजना की कमजोरियां उजागर कर दी हैं। अब जब सीपीईसी अफगानिस्तान तक पहुँच चुका है, इसमें शामिल हैं, अफगानिस्तान के लिथियम और दुर्लभ खनिज संसाधनों तक चीन की पहुँच।ऊर्जा पाइपलाइनें जो ईरान और मध्य एशिया से होकर गुजरेंगी सैन्य रसद के रूप में उपयोग हो सकने वाला ढांचा यानी अफगानिस्तान अब न केवल आर्थिक गलियारा बन गया है, बल्कि यह चीन की सामरिक घेराबंदी रणनीति का हिस्सा बनता जा रहा है। भारत की चिंता डिप्लोमेसी बनाम जियो-स्ट्रैटेजी भारत के लिए यह विस्तार केवल व्यापार या निवेश का मामला नहीं है। यह सीधे तौर पर उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा, रणनीतिक गहराई और मध्य एशिया में उसकी पहुँच को चुनौती देता है।
तालिबान सरकार ने भले ही हाल ही में भारत के साथ डिप्लोमैटिक संकेत दिए हों, लेकिन अफगानिस्तान में चीनी प्रवेश और तालिबान से गहराते पाकिस्तान-चीन रिश्ते, भारत के लिए न केवल रणनीतिक संकट हैं, बल्कि आने वाले समय में एक नई शीत युद्ध शैली की प्रतिस्पर्धा का संकेत भी।
CPEC का अफगानिस्तान तक विस्तार न केवल पाकिस्तान और चीन के लिए रणनीतिक लाभ की योजना है, बल्कि यह भारत की क्षेत्रीय नीतियों के लिए एक स्पष्ट चुनौती है। सवाल यह है कि क्या यह वास्तव में क्षेत्रीय शांति लाएगा या यह भू-राजनीतिक तनावों की एक नई श्रृंखला की शुरुआत है?
CPEC केवल एक आर्थिक गलियारा नहीं यह एशिया में वर्चस्व की जंग का केंद्र बनता जा रहा है। आने वाले हफ्ते और महीनों में भारत की रणनीतिक प्रतिक्रियाएं, इस नए मोर्चे की दिशा तय करेंगी।