वंदे मातरम्, राष्ट्रगान और रामराज्य : भारत की सांस्कृतिक चेतना का पुनर्जागरण -प्रो देव प्रकाश मिश्र।
Editor : Shubham awasthi | 13 December, 2025
भारतीय राष्ट्र की आत्मा को यदि किसी एक सांस्कृतिक प्रतीक में पढ़ा जा सकता है, तो वह है “वंदे मातरम्।” यह गीत केवल भावनाओं का संचार नहीं करता, बल्कि भारतीयता के उस सनातन दृष्टिकोण को जीवित करता है जिसमें मातृभूमि को देवी माना गया है, और राष्ट्र को एक जीवंत, संवेदनशील इकाई। स्वतंत्रता
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आंदोलन में इसका योगदान ऐतिहासिक है—यह वही ध्वनि थी जिसके साथ स्वदेशी आंदोलन खड़ा हुआ, युवाओं ने जेलें भरीं और ब्रिटिश सत्ता की दमनकारी नीतियों के सामने भी भारतीय आत्मा झुकने से इनकार करती रही।
आज जब भारत सांस्कृतिक पुनर्जागरण के निर्णायक दौर से गुजर रहा है, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उभर रहा है कि क्या “वंदे मातरम्” को वह राष्ट्रीय प्रतिष्ठा मिली है, जिसकी वह अधिकारी है। यह सवाल राष्ट्रगान बदलने का नहीं, बल्कि भारतीय चेतना के उस प्रतीक की पुनर्प्रतिष्ठा का है जिसने इस भूमि की स्वतंत्रता की लड़ाई को ऊर्जा दी।
रामराज्य की परिकल्पना यहाँ एक महत्वपूर्ण संदर्भ प्रस्तुत करती है। यह केवल धार्मिक अवधारणा नहीं, बल्कि भारतीय शासन-दर्शन का आदर्श मॉडल है—जहाँ न्याय, समानता, कर्तव्य, नैतिकता और जनकल्याण सर्वोपरि हैं। गांधीजी ने रामराज्य को “नैतिक राज” कहा था, और यह परिभाषा भारतीय राजनीतिक संस्कृति की आत्मा बन गई।
दूसरी ओर “वंदे मातरम्” मातृभूमि की उस पवित्रता को व्यक्त करता है, जिसके लिए राम भी वनवास के समस्त कष्टों में कहते हैं— “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।”
इस प्रकार, रामराज्य की आदर्श शासन-विचार और वंदे मातरम् की मातृभूमि-भक्ति एक ही सांस्कृतिक सूत्र के दो छोर हैं।
इतिहास के उदाहरण इसे और स्पष्ट करते हैं। 1905 के बंग-भंग आंदोलन में “वंदे मातरम्” केवल गीत नहीं रहा, बल्कि आज़ादी का हथियार बन गया—छात्र इसे गाते हुए डंडों और गोलियों के सामने खड़े रहे। सैयद हैदर रज़ा ने याद किया है कि उनके स्कूल में यह गीत प्रतिबंधित था, पर विद्यार्थी रोज़ सुबह इसे छिपकर गाते थे और स्वयं में नई हिम्मत पाते थे। 1930 में जब जवाहरलाल नेहरू की गिरफ्तारी हुई, तब लोगों ने सड़कों पर उतरकर “वंदे मातरम्” के नारों से पूरे वातावरण को भर दिया।
इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि “वंदे मातरम्” केवल भारत की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि उसकी राजनीतिक चेतना का भी केंद्र है।
आज जब भारत वैश्विक पटल पर आत्मविश्वास के साथ उभर रहा है, सांस्कृतिक प्रतीकों की पुनर्परिभाषा भी अनिवार्य हो उठती है। संसद के नए भवन में “वंदे मातरम्” की गूंज, राज्यों में इसे सरकारी समारोहों का अंग बनाना, और विद्यालयों में इसे सुबह की प्रार्थना का हिस्सा बनाने जैसे कदम यह बताते हैं कि यह गीत भारत की भावधारा में पुनः केन्द्रीयता प्राप्त कर रहा है।
राष्ट्रगान “जन गण मन” संविधान सभा की सहमति से स्वीकार किया गया और उसका सम्मान सर्वोपरि है। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि “वंदे मातरम्” भारतीय मानस में कहीं गहरी और व्यापक जगह रखता है। इसलिए यह समय राष्ट्रगान पर बहस खड़ी करने का नहीं, बल्कि “वंदे मातरम्” को भारत की सांस्कृतिक धड़कन के रूप में पुनर्स्थापित करने का है।
भारत के लिए यह गीत केवल संगीत नहीं; यह मातृभूमि की वंदना, प्रकृति की पूजा, स्वतंत्रता की पुकार और न्यायपूर्ण समाज के स्वप्न का संयुक्त घोष है। रामराज्य की परिकल्पना, जहाँ भूमि माता है और राज्य उसका संरक्षक, वंदे मातरम् के बिना अधूरी प्रतीत होती है।
अंततः जब हम “वंदे मातरम्” कहते हैं, तब हम केवल एक गीत नहीं गाते—हम भारत के हजारों वर्षों के सांस्कृतिक इतिहास, आध्यात्मिक चेतना और राष्ट्रीय स्वाभिमान को नमन करते हैं।
आज के बदलते भारत में इसकी प्रतिध्वनि एक बार फिर स्पष्ट सुनाई दे रही है। यही ध्वनि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सांस्कृतिक आधार बने, यही समय की माँग है— और यही भारत के उदय का शंखनाद।