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राजभाषा की अधूरी यात्रा --प्रो देव प्रकाश मिश्र।

Editor : Shubham awasthi | 15 September, 2025

हर वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। सरकारी दफ्तरों से लेकर विद्यालयों और विश्वविद्यालयों तक इस अवसर पर कार्यक्रम आयोजित होते हैं।

राजभाषा की अधूरी यात्रा --प्रो देव प्रकाश मिश्र।

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कहीं भाषण होते हैं, कहीं काव्यपाठ। परंतु सबसे गंभीर सवाल यही है कि आखिर हमें हिंदी दिवस मनाने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? दरअसल, दिवस उसी का मनाया जाता है जो समाज या व्यवस्था में पूरी तरह स्थापित न हो, जिसकी स्थिति अभी भी कमज़ोर हो। महिला दिवस, मजदूर दिवस, बालिका दिवस इसकी मिसाल हैं। हिंदी दिवस भी उसी विडंबना का प्रतीक है। यदि हिंदी सचमुच शासन-प्रशासन की सजीव भाषा बन चुकी होती, तो इसे याद दिलाने के लिए अलग दिवस की आवश्यकता ही न होती।



भारत को स्वतंत्र हुए पचहत्तर वर्ष से अधिक हो गए। संविधान सभा ने 1949 में हिंदी को देवनागरी लिपि में राजभाषा घोषित किया। इसके साथ ही अंग्रेज़ी को दस वर्षों तक सहायक भाषा के रूप में प्रयोग करने का प्रावधान रखा गया। लेकिन यह अस्थायी व्यवस्था स्थायी बन गई। आज हालत यह है कि उच्च प्रशासन, न्यायपालिका, संसद और उच्च शिक्षा के लगभग सभी स्तरों पर अंग्रेज़ी का वर्चस्व कायम है। हिंदी संविधान में राजभाषा है, लेकिन व्यवहार में वह केवल औपचारिकता तक सीमित रह गई है।


विडंबना यह है कि हिंदी केवल भारत की ही नहीं, बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी भाषाओं में से एक है। करोड़ों लोग इसे बोलते और समझते हैं। यह साहित्य, सिनेमा, मीडिया और जनमानस की भाषा है। भारत के गाँव-गाँव, कस्बों और नगरों में इसका सहज और स्वाभाविक प्रयोग होता है। फिर भी जब बात प्रशासन और ज्ञान-विज्ञान की आती है, तो हिंदी को पीछे धकेल दिया जाता है। सवाल यह है कि क्या जनता की भाषा सत्ता की भाषा बनने का साहस कभी कर पाएगी?


हिंदी की यह अधूरी यात्रा केवल संयोग नहीं है, बल्कि गहरी मानसिक और राजनीतिक समस्याओं की देन है। आज़ादी के बाद अंग्रेज़ी को प्रतिष्ठा और अवसर का पर्याय बना दिया गया। अंग्रेज़ी बोलना आधुनिकता और सफलता का प्रतीक मान लिया गया, जबकि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को पिछड़ेपन से जोड़ दिया गया। दूसरी ओर, क्षेत्रीय अस्मिताओं और राजनीतिक हितों ने भी हिंदी को पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं होने दिया। कई बार यह प्रचारित किया गया कि हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं पर थोप दी जाएगी। इस भ्रम ने भाषा को शक्ति की बजाय विवाद का विषय बना दिया।


यह सच है कि हिंदी किसी भी भारतीय भाषा की प्रतिद्वंद्वी नहीं है। यह तो संपर्क की भाषा है, सेतु की भाषा है, जो भारत की विविधता को जोड़ती है। हिंदी की ताक़त उसके साहित्य या जनसंख्या में नहीं, बल्कि इस क्षमता में है कि वह पूरे देश को संवाद की एक साझा ज़मीन पर खड़ा कर सकती है। मगर हम इस क्षमता को न पहचान सके और न ही उसे नीति का रूप दे सके।


आज स्थिति यह है कि हिंदी दिवस समारोहों तक सीमित हो गया है। कुछ औपचारिक निर्देश, कुछ नारे और कविताएँ, फिर सबकुछ पुराने ढर्रे पर। लेकिन हिंदी की वास्तविक चुनौती वहीं की वहीं है। यदि हमें सचमुच हिंदी दिवस को सार्थक बनाना है तो इस औपचारिकता से आगे बढ़ना होगा। शिक्षा, न्याय और प्रशासन में हिंदी को प्राथमिकता देनी होगी। तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दावली को सरल और सुगम बनाकर हिंदी को ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाना होगा। सबसे ज़रूरी है कि भाषा को राजनीति से मुक्त किया जाए। हिंदी किसी पर थोपी न जाए, बल्कि इसे भारतीय एकता की स्वाभाविक धारा के रूप में स्वीकार किया जाए।


हिंदी दिवस हमें यह सोचने का अवसर देता है कि आखिर हमारी अपनी भाषा अपने ही घर में परदेसी क्यों है। यह हमें यह सवाल पूछने पर मजबूर करता है कि हम किस मानसिक गुलामी में बंधे हुए हैं। जिस भाषा में हम सपने देखते हैं, जिस भाषा में हम अपने दुख-सुख बाँटते हैं, वही भाषा हमारी अदालतों, हमारी संसद और हमारे विश्वविद्यालयों की मुख्य भाषा क्यों नहीं है?


यदि यह स्थिति नहीं बदली तो हिंदी दिवस हर वर्ष हमें हमारी विफलता का आईना दिखाता रहेगा। यह दिवस तभी सार्थक होगा जब हिंदी को केवल मंच की भाषा नहीं, बल्कि राष्ट्रजीवन की भाषा बनाया जाएगा। राजभाषा की यह अधूरी यात्रा तभी पूरी होगी जब हिंदी अपने प्राकृतिक अधिकार और सम्मान के साथ शासन-प्रशासन और ज्ञान की धारा में प्रतिष्ठित होगी।