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दीपोत्सव :मानवाधिकार आदर्श और असमानता का द्वंद्व -प्रो देव प्रकाश मिश्र।

Editor : Shubham awasthi | 24 October, 2025

मानवाधिकारों का प्रश्न आधुनिक सभ्यता की उपज नहीं है। यह उतना ही पुराना है जितनी मानव चेतना। हर युग में शक्ति और न्याय, अधिकार और कर्तव्य, करुणा और अहंकार का संघर्ष रहा है।

दीपोत्सव :मानवाधिकार आदर्श और असमानता का द्वंद्व -प्रो देव प्रकाश मिश्र।

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त्रेतायुग की रामायण इसका जीवंत उदाहरण है—जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम न्याय, धर्म और मानवता के प्रतीक हैं, वहीं रावण और बाली सत्ता के दुरुपयोग और अधिकारों के दमन के प्रतीक।

आज जब विश्व मानवाधिकार दिवस मनाया जा रहा है, तो यह केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि आत्ममंथन का अवसर होना चाहिए।


राम का जीवन हमें यह सिखाता है कि सत्ता का अर्थ शासन नहीं, बल्कि संरक्षण और न्याय है। वनवास का पालन, पिता के वचन का निर्वाह, निषादराज और शबरी के प्रति उनका स्नेह—ये सभी उदाहरण इस बात के साक्षी हैं कि मानव गरिमा सत्ता से कहीं ऊँची है।

राम ने यह स्पष्ट किया कि अधिकार केवल कानून या पद से सुरक्षित नहीं रहते; वे तब सुरक्षित होते हैं जब शासन और समाज उन्हें करुणा, सम्मान और जिम्मेदारी के साथ निभाते हैं।


त्रेतायुग का बाली–सुग्रीव प्रसंग मानवाधिकार दृष्टि से विशेष रूप से उल्लेखनीय है। बाली ने अपने छोटे भाई सुग्रीव के अधिकार और सम्मान का हनन किया। उसे राज्य से निष्कासित कर दिया और उसकी पत्नी को अपने अधीन कर लिया। यह न केवल शक्ति का दुरुपयोग था बल्कि न्याय और पारिवारिक मर्यादा का उल्लंघन भी।

आज का समाज इस प्रसंग से बहुत भिन्न नहीं है। जब सत्ता या प्रभावशाली वर्ग अपने पद, धन या प्रभाव का उपयोग कमजोरों की आवाज़ दबाने में करते हैं, तब वह आधुनिक बाली का ही रूप होता है।


आधुनिक भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने मानवाधिकारों को सशक्त बनाने के लिए कई योजनाएँ लागू की हैं।

स्वच्छ भारत अभियान ने स्वच्छता को गरिमा से जोड़ा, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ ने नारी शिक्षा और सुरक्षा को बल दिया, प्रधानमंत्री आवास योजना ने गरीबों को आश्रय का अधिकार दिया, उज्ज्वला योजना ने रसोई के धुएँ से मुक्ति दिलाकर महिलाओं की सेहत और सम्मान दोनों की रक्षा की, और आयुष्मान भारत ने स्वास्थ्य को विशेषाधिकार नहीं बल्कि अधिकार बना दिया।

ये सभी पहलें इस दिशा में सकारात्मक संकेत हैं कि शासन व्यवस्था अधिकारों को व्यवहारिक धरातल पर उतारने का प्रयास कर रही है।


परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि नीतियों की सफलता केवल उनकी घोषणा में नहीं, उनके क्रियान्वयन में निहित होती है।

असहमति की आवाज़ों पर दबाव, मीडिया की स्वतंत्रता पर अदृश्य नियंत्रण, विरोध प्रदर्शनों पर कठोर दमन, तथा कमजोर वर्गों के अधिकारों की अनदेखी—ये संकेत बताते हैं कि सत्ता और अधिकारों के बीच संतुलन अभी भी अधूरा है।

शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार में असमानता, विशेषकर ग्रामीण और वंचित वर्गों में, यह दिखाती है कि अधिकारों का लाभ सबको समान रूप से नहीं मिल रहा।

संविधान की आत्मा तब तक अधूरी है जब तक समाज का अंतिम व्यक्ति अपने अधिकारों को व्यवहारिक रूप में महसूस न करे।


रामायण हमें सिखाती है कि जब शक्ति विवेक और मर्यादा से अलग हो जाती है, तो मानवाधिकारों का हनन होता है। रावण और बाली के चरित्र आज भी चेतावनी हैं—जब सत्ता अहंकार में डूबी हो और अपने विरोधियों को कुचलने के लिए प्रयुक्त हो, तब न्याय केवल दिखावा बनकर रह जाता है।

आज भी कार्यस्थलों पर उत्पीड़न, शिक्षा और स्वास्थ्य में असमानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश, और जातीय या लैंगिक भेदभाव—ये सभी आधुनिक ‘रावण’ और ‘बाली’ की ही प्रवृत्तियाँ हैं।


विश्व मानवाधिकार दिवस केवल घोषणाओं का नहीं, आत्मावलोकन का दिन है। यह पूछने का अवसर है कि क्या हम अपने भीतर के ‘राम’ को जाग्रत कर रहे हैं या ‘रावण–बाली’ जैसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रहे हैं।

अधिकार केवल संविधान या संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेजों में नहीं, बल्कि समाज की चेतना में जीवित रहते हैं। जब शासन उन्हें आचरण में उतारता है और नागरिक समाज उन्हें आत्मसात करता है, तभी वे सशक्त बनते हैं।


सरकार की योजनाएँ दिशा दे रही हैं, परंतु उनके सफल क्रियान्वयन के लिए पारदर्शिता, जवाबदेही और जनजागरूकता की आवश्यकता है।

ग्रामीण भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य की विषमता, महिलाओं और बच्चों पर बढ़ते अत्याचार, डिजिटल सुरक्षा की कमजोरियाँ—ये सभी संकेत हैं कि मानवाधिकारों की लड़ाई अब भी अधूरी है।

यह भी सत्य है कि नागरिक समाज में नैतिक जिम्मेदारी और संवेदनशीलता का अभाव इस चुनौती को और कठिन बना देता है।

राम और सुग्रीव का संबंध यह सिखाता है कि अधिकारों की रक्षा केवल शक्ति से नहीं, बल्कि करुणा और न्याय से होती है। जब समाज में समानता और सह-अस्तित्व की भावना जीवित होती है, तभी मानवाधिकार सुरक्षित रहते हैं।

कानून और योजनाएँ पर्याप्त नहीं हैं; उनकी आत्मा तभी जागृत होती है जब शासन में संवेदना और समाज में नैतिकता हो।


आवश्यकता इस बात की है कि सत्ता का प्रयोग शोषण के लिए नहीं, बल्कि संरक्षण के लिए हो। समाज को भी यह समझना होगा कि अधिकार केवल शासन की देन नहीं, बल्कि मानव चेतना की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हैं।

यदि हम स्वयं दूसरों के अधिकारों का सम्मान नहीं करेंगे, तो अपने अधिकारों की रक्षा का भी नैतिक अधिकार खो देंगे।


रामायण का संदेश आज भी प्रासंगिक है—शक्ति का धर्म संरक्षण है, शोषण नहीं; न्याय का धर्म मर्यादा है, प्रतिशोध नहीं; और मानव का धर्म मानवता है, अहंकार नहीं।

मोदी सरकार की योजनाएँ इस दिशा में निश्चित रूप से कदम बढ़ा रही हैं, परंतु असमानता, दमन और असंवेदनशीलता की प्रवृत्तियाँ अब भी समाज की जड़ें कमजोर कर रही हैं।

जब तक शासन और समाज दोनों मिलकर यह सुनिश्चित नहीं करेंगे कि हर नागरिक सम्मान और गरिमा के साथ जी सके, तब तक मानवाधिकारों का सपना अधूरा रहेगा।


आज चुनौती यह नहीं है कि हमारे पास कानून या नीतियाँ नहीं हैं; चुनौती यह है कि क्या हम उनमें करुणा और संवेदना का संचार कर पा रहे हैं।

जब सत्ता सेवा का पर्याय बने, जब समाज में समानता की चेतना जागे, और जब हर नागरिक दूसरे के अधिकार को अपने समान माने—तभी हम वास्तविक अर्थों में मानवाधिकारों की रक्षा कर सकेंगे।


विश्व मानवाधिकार दिवस हमें यही याद दिलाता है कि यह जश्न नहीं, सतत संघर्ष और आत्मावलोकन का दिन है।

यह हमें प्रेरित करता है कि हम अपने भीतर के राम को सशक्त करें और रावण–बाली जैसी प्रवृत्तियों को रोकें।


अयोध्या का दीपोत्सव इस विचार का प्रतीक है—जहाँ हर दीप न्याय, समानता और करुणा का संदेश देता है।

यह वही परंपरा है जो कहती है

“तमसो मां ज्योतिर्गमय, असतो मां सद्गमय।”

अर्थात्, अंधकार से प्रकाश, असत्य से सत्य, और अन्याय से न्याय की ओर बढ़ना ही मानवाधिकारों की सच्ची साधना है।